Gopi Geet Complete 1st Shloka To 19th Shloka ,Hindi, Meaning,Vikas Aggarwal,Shivam Dubey,Gopi Geet Download,Devi Chitralekha Ji, Mridul Krishna Goswami Ji GopiGeet,
गोपी गीत श्लोक
गोपी आत्मभाव
सम्पूर्ण
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।। 1st Shloka ।। 2nd Shloka ।।
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।। 9th Shloka ।। 10-14th Shloka ।।
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-श्लोक-15-
अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥
-भावार्थ-
गोपी ने अपनी एक एक वेदना को बहुत ही सजीवता के साथ वर्णन किया है, वहा कह रही हे प्यारे ! दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिए चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिए एक एक क्षण युग के समान हो जाता है अर्थात हम से इतनी भी प्रतीक्षा नही होती हमारे प्राण हमारे गले तक अटक जाते है की आप कहाँ है? क्या कर रहे है? हमे अपने घर गृहस्थी, बाल बच्चों का भी भान नही है, पूरा दिन इसी चिंतन में व्यतीत हो जाता है और अँखियाँ बिन पलक झपके आप जिस मार्ग से लौटते हो वही बिछी रहती है,और जब तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुंघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविंद हम देखती हैं, उस समय पलकों का गिरना भी हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी हो जाता है।
आपका सोभा से युक्त धूलधूसरित मुख हमारे लिए जीवनदान बन जाता है,आपके दर्शन के बिच हमे फिर कोई बढ़ उत्पन्न करने वाली क्रिया पसंद नही है, फिर चाहे हमारी पलको का झपकना ही क्यों न हो ? क्योंकि पालक झपकने से क्षण भर का भी दर्शन अवरुद्ध होता है तो वहा भी हमसे सहन नही होता और ऐसा जान पड़ता है की इन पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है।।क्या क्या दृष्टान्त देकर हम आपको अपनी पीड़ा का एहसास करवाये, हे मनोहर ! आपने हमारे मन को पूर्ण रूप से हर लिया है,
-श्लोक-16-
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥
-भावार्थ-
हे हमारे प्यारे श्याम सुन्दर ! हम अपने पति-पुत्र, भाई -बन्धु, और कुल परिवार का त्यागकर, उनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लंघन करके तुम्हारे पास आयी हैं । गोपिया बहुत ही व्यथित है की हम सारा घर बार छोड़कर तुमरे पीछे निकल आयी है, हमने सकल लोक लाज को त्याग दिया है, सभी मर्यादाओं का उलंघन कर दिया है केवल आपको पाने के लिए, हम नही जानती क्या मर्यादा है क्या सही और क्या गलत है, हम तो केवल और केवल आपके प्रेम की प्यासी यह वन में चली आयी है, हम तुम्हारी हर चाल को जानती हैं, हर संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर यहाँ आयी हैं ।अब तुम हमसे छल कर रहे हो,न जाने कहाँ छूप गए हो?
तुम्हारे सिवा और कौन ऐसा है जो हमारे साथ ऐसा कपटपूर्ण व्यवहार कर सके, हम तो तुम्हारे प्रेम में बिन किसी मोल के बिक गयी है तभी तुम हमे ऐसे तड़प रहे हो और विरह अग्नि मी जलने के लिए छोड़ गए हो, हे कपटी ! इस प्रकार रात्रि के समय आयी हुई युवतियों को तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है।। इस गहन वन में यह तुम्हे भी पता है की कोई दूसरा व्यक्ति नही आ सकता और इतनी रात्रि में जब हम यहां आ गयी है तो केवल तुम ही ऐसे हो जो हमे सता सकते हो अन्यथा यह कोई और नही आ सकता,
-श्लोक-17-
रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥
-भावार्थ-
आप ही एक ऐसे हो जो हमारे लिए प्रेम भाव की बाते किया करते थे, अपनी मनमोहिनी बातों से हमारे भोले भले मन को अपने आश्रित कर लिया, ऐसी चिकनी चुपड़ी मीठी मीठी वार्ता करते हो की प्रेमी तो क्या दुश्मन भी तुमसे प्रेम करने लगे फिर हम तो भोरी भiरी अहिर की छोरिया ग्वार तुम्हारी बातों में आ गयी इसमें कौन सी बड़ी बात है,
हे प्यारे ! एकांत में तुम मिलन की इच्छा और प्रेम-भाव जगाने वाली बातें किया करते थे । ठिठोली करके हमें छेड़ते थे । तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुस्कुरा देते थे हम ठहरी भोली बावरी तुम्हारी मुस्कान पर मोहित होकर अपना सब कुछ त्याग दिया और तुम्हारे पीछे दौड़ती रही,और हम तुम्हारा वह विशाल वक्ष:स्थल देखती थीं जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निरंतर निवास करती हैं। तुम्हारे पुष्ट गरिमामय शरीर को देख कर हम सब अत्यधिक आपके प्रेम में लालायित होती गयी, हे प्रिये ! तबसे अब तक निरंतर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन तुम्हारे प्रति अत्यंत आसक्त होता जा रहा है।।
-श्लोक-18-
व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥
-भावार्थ-
हे प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुःख ताप को नष्ट करने वाली और विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है । आप का यह रूप यह माधुर्य यह आलोकिक आनंद न केवल हमारे लिए बल्कि सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त आपके भक्तो के कल्याण के लिए है, यह सब सभी के दुखो को नष्ट करने वाला है, हम आपसे कोई ऐसा उपाय या औषधि पूछ रही है जो सम्पूर्ण विश्व को शांति और आनंद प्रदान करे, यहां गोपिया उदार हो गयी है उन्होंने यह उन रसिको और प्रेमियों के भले की भी बात की है की हे प्रभु आपके मिलन से हमारा तो भला हो ही जायेगा किन्तु इस विश्व में व्याप्त आपके अनंत भक्त उन्हें भी इस गोपिभावो से आपकी किरपा पाने का मार्ग मिल जायेगा अतः आप अब हमे मत सताइये और हमारा ह्रदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है । कुछ थोड़ी सी ऐसी औषधि प्रदान करो,जो तुम्हारे निज जनो के ह्रदय रोग को सर्वथा निर्मूल कर दे।।
उम्र भर के लिए तुझे क्या मांगना उम्र तो आज नहीं तो कल बीत जाएगी....
हमे तो प्यारे वो तरकीब बता जो हर जन्म के लिए तुम्हे हमारा बनाएगी.....
आपके निज जन कौन है यह आप भली भांति जानते है जिन भक्तो ने आपके लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया, जो भक्त भूरिद जन आपकी कथाओ का दान और गान करते है,जो रसिक आपको ही अपना सब कुछ मानते है ऐसे जन आपके निज जन है उनका भी कल्याण कीजिये और अपने मिलन की औषधि हमे बताइये,
-श्लोक-19-
यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥
-भावार्थ-
हे श्रीकृष्ण ! तुम्हारे चरण, कमल से भी कोमल हैं । आपके कोमल चरण इस रात्रि में कहा कहा पड़ रहे होंगे और कष्ट पा रहे होंगे हमे यह बात सताये जा रही है, हमे केवल अपने सुख को पाने के लिए पीड़ा नही हो रही किन्तु कहि आपको लेशमात्र भी कष्ट सहनi पड़ रहा है तो यह हमारे लिए असहनीय दुःख का कारण है, उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो । क्या कंकड़, पत्थर, काँटे आदि की चोट लगने से उनमे पीड़ा नहीं होती ? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही चक्कर आ रहा है । हम अचेत होती जा रही हैं ।उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते डरते रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय ।अर्थात आपके चरण इतने संवेदनशील है की जरा सी भी उष्णता से फफोले पड़ जाते है इसी कारण हम अपने हृदय पर धरति हुयी भी चिंतित रहती है की कहि हमारे हृदय में प्रवाहित विरहाग्नि का ताप आपके इन चरणों को कष्ट न प्रदान करे और आप ऐसे ही वन में भटक रहे है, हमने अपने वक्षो पर शीतल चंदन का लेप के इनको ढांक रखा है ताकि आपके चरणों को शीतलता का एहसास होता रहे, फिर इसके निचे चाहे कितना ही ताप हम सहन कर रही हो आपको इस बात का भान भी न हो, हे प्यारे !

प्रेम की विद्या मै नही जानू
मै तो केवल प्रेम ही जानू
प्रेम मेरा कृष्ण है
कृष्ण से मोहे प्रेम है
यही मेरा ज्ञान है यही मेरा मान है
यही मेरी विद्या यही मेरा अभिमान है
हमे अपने सुख की चिंता नही है,क्योंकि सच्चा प्रेम लेने का नही देने के लिए होता है, अगर प्रेमी को कोई भी कष्ट हो तो प्रेमिका का प्रेम सत्य नही होता, हम आपसे प्रेम कुछ पाने के लिए नही किन्तु आपको सुख प्रदान करने के लिए करती है,
उलटो पंथ हैं प्रेम कौ,तहाँ रह्यो मन हारि..
यशहूँ सुनि लागत बुरौ, मीठी लागति गारि....
यदि हमे सुख की ही कामना होती तो अपना घर बार सब छोड़ कर इस अर्ध रात्रि के समय बियाबान वन में जहां दिन के समय भी कोई आते हुए डरता है आपको ढूंढती हुयी नही फिरती हमे तो आपके सुख की अभिलाषा है और आपके सुख के लिए ही क्योंकि यह आपकी भी इच्छा थी की आज की शरद पूर्णिमा की शीतल रात्रि में हम सब रास करे और इसी इच्छा का मान करने हम बिना कुछ बिचारे आपके सुख के लिए यहां चली आयी है, हे प्यारे श्यामसुन्दर ! हे प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है, हम तुम्हारे लिए जी रही हैं, हम सिर्फ तुम्हारी हैं।।
मैढ़ नहीं जानत रीती प्रेम की ऐसी हैं .....
प्रेम की जाति प्रेम ही हैं.......
प्रेम का धर्म प्रेम ही हैं ........
प्रेम का नियम प्रेम हे.........
प्रेम का पंथ प्रेम ही हैं.......
प्रेम की चाल तलवार की धार पे चलने जैसी हैं....
निठुर भये श्याम तुम, तोरा हिय ना पसीजे रे
भूल गए हम सखियन को, तुम कठोर भये रे
याद है तुमको या बिसर गए हंससुता की सूंदर रजनी
शरद ऋतू की चांदनी रात, रास रचाया जब हितसजनी
ऐसी क्या भूल हुयी हमसौं, जो तुम नही आय मिले रे
पहिले प्रेम पाश में बांध लिया, अब क्यों भूल गए रे
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-श्लोक-18-
व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥
-भावार्थ-
हे प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुःख ताप को नष्ट करने वाली और विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है । आप का यह रूप यह माधुर्य यह आलोकिक आनंद न केवल हमारे लिए बल्कि सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त आपके भक्तो के कल्याण के लिए है, यह सब सभी के दुखो को नष्ट करने वाला है, हम आपसे कोई ऐसा उपाय या औषधि पूछ रही है जो सम्पूर्ण विश्व को शांति और आनंद प्रदान करे, यहां गोपिया उदार हो गयी है उन्होंने यह उन रसिको और प्रेमियों के भले की भी बात की है की हे प्रभु आपके मिलन से हमारा तो भला हो ही जायेगा किन्तु इस विश्व में व्याप्त आपके अनंत भक्त उन्हें भी इस गोपिभावो से आपकी किरपा पाने का मार्ग मिल जायेगा अतः आप अब हमे मत सताइये और हमारा ह्रदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है । कुछ थोड़ी सी ऐसी औषधि प्रदान करो,जो तुम्हारे निज जनो के ह्रदय रोग को सर्वथा निर्मूल कर दे।।
उम्र भर के लिए तुझे क्या मांगना उम्र तो आज नहीं तो कल बीत जाएगी....
हमे तो प्यारे वो तरकीब बता जो हर जन्म के लिए तुम्हे हमारा बनाएगी.....
आपके निज जन कौन है यह आप भली भांति जानते है जिन भक्तो ने आपके लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया, जो भक्त भूरिद जन आपकी कथाओ का दान और गान करते है,जो रसिक आपको ही अपना सब कुछ मानते है ऐसे जन आपके निज जन है उनका भी कल्याण कीजिये और अपने मिलन की औषधि हमे बताइये,
-श्लोक-19-
यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥
-भावार्थ-
हे श्रीकृष्ण ! तुम्हारे चरण, कमल से भी कोमल हैं । आपके कोमल चरण इस रात्रि में कहा कहा पड़ रहे होंगे और कष्ट पा रहे होंगे हमे यह बात सताये जा रही है, हमे केवल अपने सुख को पाने के लिए पीड़ा नही हो रही किन्तु कहि आपको लेशमात्र भी कष्ट सहनi पड़ रहा है तो यह हमारे लिए असहनीय दुःख का कारण है, उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो । क्या कंकड़, पत्थर, काँटे आदि की चोट लगने से उनमे पीड़ा नहीं होती ? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही चक्कर आ रहा है । हम अचेत होती जा रही हैं ।उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते डरते रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय ।अर्थात आपके चरण इतने संवेदनशील है की जरा सी भी उष्णता से फफोले पड़ जाते है इसी कारण हम अपने हृदय पर धरति हुयी भी चिंतित रहती है की कहि हमारे हृदय में प्रवाहित विरहाग्नि का ताप आपके इन चरणों को कष्ट न प्रदान करे और आप ऐसे ही वन में भटक रहे है, हमने अपने वक्षो पर शीतल चंदन का लेप के इनको ढांक रखा है ताकि आपके चरणों को शीतलता का एहसास होता रहे, फिर इसके निचे चाहे कितना ही ताप हम सहन कर रही हो आपको इस बात का भान भी न हो, हे प्यारे !

प्रेम की विद्या मै नही जानू
मै तो केवल प्रेम ही जानू
प्रेम मेरा कृष्ण है
कृष्ण से मोहे प्रेम है
यही मेरा ज्ञान है यही मेरा मान है
यही मेरी विद्या यही मेरा अभिमान है
हमे अपने सुख की चिंता नही है,क्योंकि सच्चा प्रेम लेने का नही देने के लिए होता है, अगर प्रेमी को कोई भी कष्ट हो तो प्रेमिका का प्रेम सत्य नही होता, हम आपसे प्रेम कुछ पाने के लिए नही किन्तु आपको सुख प्रदान करने के लिए करती है,
उलटो पंथ हैं प्रेम कौ,तहाँ रह्यो मन हारि..
यशहूँ सुनि लागत बुरौ, मीठी लागति गारि....
यदि हमे सुख की ही कामना होती तो अपना घर बार सब छोड़ कर इस अर्ध रात्रि के समय बियाबान वन में जहां दिन के समय भी कोई आते हुए डरता है आपको ढूंढती हुयी नही फिरती हमे तो आपके सुख की अभिलाषा है और आपके सुख के लिए ही क्योंकि यह आपकी भी इच्छा थी की आज की शरद पूर्णिमा की शीतल रात्रि में हम सब रास करे और इसी इच्छा का मान करने हम बिना कुछ बिचारे आपके सुख के लिए यहां चली आयी है, हे प्यारे श्यामसुन्दर ! हे प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है, हम तुम्हारे लिए जी रही हैं, हम सिर्फ तुम्हारी हैं।।
मैढ़ नहीं जानत रीती प्रेम की ऐसी हैं .....
प्रेम की जाति प्रेम ही हैं.......
प्रेम का धर्म प्रेम ही हैं ........
प्रेम का नियम प्रेम हे.........
प्रेम का पंथ प्रेम ही हैं.......
प्रेम की चाल तलवार की धार पे चलने जैसी हैं....
निठुर भये श्याम तुम, तोरा हिय ना पसीजे रे
भूल गए हम सखियन को, तुम कठोर भये रे
याद है तुमको या बिसर गए हंससुता की सूंदर रजनी
शरद ऋतू की चांदनी रात, रास रचाया जब हितसजनी
ऐसी क्या भूल हुयी हमसौं, जो तुम नही आय मिले रे
पहिले प्रेम पाश में बांध लिया, अब क्यों भूल गए रे
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